Sunday, February 10, 2013

गंगा उदास है -कैलाश गौतम

महाकुम्भ के अवसर पर मौनी अमावस्या के दिन आदरणीय कैलाश जी के प्रसिद्ध गीत ' गंगा उदास
 है ' की कुछ पंक्तियाँ प्रासंगिक लग रहीं हैं -
     गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है,वह जूझ रही खुद से और बदहवास है।
     न अब वो रंगोरूप है न वो मिठास है,गंगाजली को जल नहीं गंगा के पास है।
     दौड़ा रहे हैं लोग इसे खेत-खेत में,मछली की तरह स्वयं तड़पती है रेत में।
     बंधों के जाल में कहीं नहरों के जाल में,सिर पीट-पीट रो रही शहरों के जाल में।
     नाले सता रहे हैं पनाले सता रहे,खा खा के पान थूकने वाले सता रहे।
     असहाय है लाचार है मजबूर है गंगा,अब हैसियत से अपनी बहुत दूर है गंगा।
     मैदान ही मैदान है मैदान है गंगा,कुछ ही दिनों की देश में मेहमान है गंगा।
     गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है............
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     जो कुछ भी आज हो रहा गंगा के साथ है,क्या आप को पता नहीं कि किसका हाथ है,
     देखें तो आज क्या हुआ गंगा का हाल है,रहना मुहाल इसका जीना मुहाल है।
     गंगा के पास दर्द है आवाज़ नहीं है,मुँह खोलने का कुल में रिवाज़ नहीं है।
     गंगा नहीं रहेगी यही हाल रहा तो,कब तक यहाँ बहेगी यही हाल रहा तो।
     गंगा परंपरा है ये गंगा विवेक है,गंगा ही एक सत्य है गंगा ही टेक है।
     गंगा से हरिद्वार है काशी प्रयाग है,गंगा ही घर की देहरी गंगा चिराग है।
     गंगा हमारी ऊर्जा गंगा ही आग है,गंगा ही दूध-पूत है गंगा सुहाग है।
     गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है,वह जूझ रही खुद से और बदहवास है।।

     आशु प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित '' सिर पर आग '' से आभार सहित ।
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