धर्म और साम्प्रदायिकता
"यतो अभ्युदयः निःश्रेयसः सिद्धिः स धर्मः" इस आप्त कथन में अभ्युदय शब्द समावेशी अभ्युदय-उत्थान को संकेतित करता है। यह किसी खास को लेकर या किसी खास को छोड़ कर नहीं। यह भौतिक उत्थान है। खाना, कपड़ा, मकान और अन्य रोजमर्रा की सुविधाओं के साथ। इस लक्ष्य की प्राप्ति और प्राप्ति के प्रयास इस अभ्युदय में समाहित हैं। इसे आप दार्शनिक शब्दावली में "प्रेयस्" भी कह सकते हैं।
इससे उलट "निःश्रेयस्" है आध्यात्मिक विकास। अब आत्मा पर,अमरता पर,परलोक और पुनर्जन्म पर विश्वास न करने वाले, धर्म को अफ़ीम मानने वाले इस आध्यात्मिक विकास की बात पर नाक-भौं सिकोड़ेंगे -सिकोड़ा करें। हू बादर्स! तो निश्रेयस् की प्राप्ति - आत्मा की उच्चता: पवित्रता की ओर बढ़ाया गया कदम है। यही योग की स्थिति है -"योगःचित्तवृत्ति निरोधः"। मन की चंचलता को रोकने की प्रक्रिया की पूर्णता -यही तो है मेडिटेशन: मन की चित्त की, मन की एकाग्रता। यह एक लंबी यात्रा है। जहाँ तक हर योगी जाना,पहुँचना चाहता है- वह मुक्ति की,मोक्ष की परम स्थिति। जहाँ चिश्ती और कबीर जैसे सन्त पहुँचने का प्रयास करते रहे,शायद पहुँच भी गये रहे हों।वहाँ पहुँचने पर पंथ और सम्प्रदाय की तू तू मैं मैं चुक जाती है। भौतिक सुखों की भूख प्यास मिट जाती है-जाति बिरादरी ,रंग रूप ,चोटी-दाढ़ी,गंडा ताबीज़ सब चुक जाता है, इस स्थिति -स्थान की प्राप्ति- सिद्धि ही वास्तविक धर्म है। यह नितान्त वैयक्तिक विषय या कर्म है।
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