Sunday, December 23, 2012

नव वर्ष 2013

नववर्ष 2013

नये वर्ष में हर्ष से करिये मित्र विचार,                              
बीती ताहि बिसारियेउचित नहीं हर बार।
ह्यूमन राइट क्या बला कैसा है यह न्याय,
कातिल को कमतर सजा मरा मरा मर जाय।
बलात्कार जिसने किया उसको मिला इनाम,
ह्यूमन राइट टीम ने बाँटा मख्खन जाम।
अस्मत जिनकी लुट गयी वही हुए बदनाम।
और लुटेरे घूमते पी कर दूध-बदाम।                         
ह्यूमन बीइंग कौन हैं?किनको माना जाय?
जो पत्तल में थूक कर उसमें खाना खाय़ँ।
पच्छिम से आयी नई परिभाषा है भ्रष्ट,
निजता से सब गड़बड़ी मानवता भी नष्ट।
आत्मवत् सर्वभूतेषुभूल गये सब मंत्र,
अपना-अपना चल पड़ा मनवा हुआ स्वतंत्र।
अपनी पीड़ा की तरह सबकी पीड़ा जान,
बकरा,मुरगा,मीन में सबमें प्राण समान।
अपनी है अपनी अपन परकीया है माल,
ऐसी सोच विकारहै हर विकार है काल।
कैसे ऐसी सोच के ह्यूमन हुए महान,
ह्यूमन जो है ही नहीं उसके प्रति सम्मान!
जो फेंके तेज़ाब या करें रेप का खेल,
उनका भूखे शेर के पिंजड़ो में हो खेल।
सुधा रामलिंगम् कहें ह्यूमन है रेपिष्ट,
क्या वह ह्यूमन ही नहीं जिसका हुआ अनिष्ट!
परपीड़ा सम नहिं अधमाईभूल गये सब मंत्र,
अधम नराधम हों भला क्यों मानव या संत?
ह्यूमन राइट टीम में कैसे कैसे लोग,
चमचागीरी कर रहे लगा पश्चिमी रोग।
*           *             *

नये वर्ष में हर्ष से करिये मित्र विचार,
बीती ताहि बिसार देउचित नहीं इस बार।
कहीं हार पर हर्ष कहीं जीत पर हर्ष,
कहीं पराजय सालती जय पर कहीं विमर्श।
कैसे कैसे लोग हैं आज विजय में मस्त,
सर माथे पर वे चढे जो थे सबसे भ्रष्ट।
जिन्हें कोर्ट भी कह चुका भ्रष्टों का सरदार,
वही चौधरी जा बने कैसे हो उद्धार।
वीरभद्र जीते वहीं जीते प्रेम कुमार,
दोनों पर आरोप हैं फिर भी जयजयकार।
लाखों की इनकम हुई रातों रात करोड़,
कोई रोक न लग सकी मिला न कोई तोड़।
चोरी चोरी है कहाँ यदि सैंया कोतवाल,
इनकम टैक्स विभाग में मैडम पहरेदार।
पर मोदी की जीत पर हैं खबीस हैरान,
झोपड़ पट्टी की फिलम कर न सकी कुछ काम।
केशू भाई, सोनिया, बाघेला का खेल,
मोदी ने लंगी लगा किया सभी को फेल।।


Wednesday, November 21, 2012

दीवाल पर लिखा

जो दीवाल पर लिखा नहीं पढ़ पाते ,गडकरीजी उन्हें कौन समझाये क्योंकि वे आँख,कान, नाक और
दिमाग से भी पैदल हो जाते हैं।आपकी अध्यक्षता में उम्मीद नहीं कि सौ से अधिक भाजपा के सांसद
लोकसभा का मुँह देख पायेंगे। भय,भूख और भ्रष्टाचार से देश की मुक्ति का तो अब सवाल ही पैदा
नहीं होता, पार्टी विद डिफरेन्स तो दूर की कौड़ी है। राम.....राम.....

Saturday, November 3, 2012

ऋतुसंहार


                                 ऋतुसंहार

                                 प्रथम सर्ग

                            ग्रीष्म ऋतु वर्णन
प्रचण्डसूर्यः स्प्रहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसञ्चयः।
दिनान्तरम्योSभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोSयमुपागतःप्रिये।।1।।
तप रहा सूर्य,सर-सरिता में,अनवरत स्नान से चुका नीर                                                               
चाँदनी रम्य रमणीक साँझ है शान्त क्लान्त मन्मथ समीर,
अब करो प्रिये! स्वागत बढ़कर,आया निदाघ ले ग्रीष्मकाल ।।1।।

            निशाः शशाङ्कक्षतनीलराजयः क्वचिद्विचित्रं जलयन्त्रमन्दिरम्।
मणिप्रकाराः सरसं च चन्दनं शुचौ प्रिये यान्ति जनस्य सेव्यताम्।।2।।
अब चंद्रकान्ति से रम्य रात्रि, शुभ फौवारों से युक्त भवन,
नाना प्रकार के मन भावन शुभ रत्न तरल पावन चन्दन।
लगते प्रिय सबके सब सुन्दरि! सेवन सुख देता बार-बार,
ऐसा आया यह ग्रीष्मकाल ।।2।।

            सुवासितं हर्म्यतलं मनोहरं प्रियामुखोच्छ्वासविकम्पितं मधुः।
सुतन्त्रिगीतं मदनस्य दीपनं शुचौ निशीथेSनुभवन्ति कामिनः।।3।
मादक सुगन्धि से आप्लावित सुन्दर भवनों में प्रेमीगण,
प्रेयसि-श्वासों से पावन-मधु मदिरा चख छक कर कामीजन,
आनन्दित हो लेते सुन्दरि! सार्थक कर लेते निशाकाल ।
ऐसा मनभावन ग्रीष्मकाल ।।3।।

            नितम्बबिम्बैः सुदुकूलमेखलैः स्तनैः सहाराभरणैः सचन्दनैः।
शिरोरुहैः स्नानकषायवासितैः स्त्रियो निदाघं शमयन्ति कामिनाम्।।4।।
सखि! पृथुल नितम्बों पर करधन लटकाकर झीना सा दुकूल,
सद्यःसंस्नाता कामिनियाँ डाले केशों में गन्ध-फूल -
कामुक-प्रिय की पीड़ा हरतीं करतीं निदाघ का शान्त ज्वाल ।
ऐसा मनभावन ग्रीष्मकाल।।4।।

            नितान्तलाक्षारसरागरञ्जितैः नितम्बिनीनां चरणैः सुनूपुरैः।
पदे पदे हंसरुतानुकारिभिः जनस्य चित्तं क्रियते समन्मथम्।।5।।
चरणों में लाक्षारस रंग कर, हंसों सी नूपुर ध्वनि कर कर,
पृथुबिम्ब नितम्बों से डगमग चलतीं कामिनियाँ जब पगपग
सच जानो सखि! कर रत्युत्सुक सबका मन मथतीं बार बार।
ऐसा मनभावन ग्रीष्मकाल ।। 5।।

            पयोधराश्चन्दनपङ्कचर्चिताः तुषारगौरार्पितहारशेखराः ।
नितम्बदेशाश्चसहेममेखलाः प्रकुर्वते कस्य मनो न सोत्सुकम्।।6।।
चन्दन-रस रंजित कर उरोज सिर पर धारण कर धवल हार
कटिलम्बित स्वर्णिम करधन पर डाले नितम्ब का पृथुल भार,
होगा न कौन रत्युत्सुक सखि! कामिनियों के लख ये श्रृंगार।
कैसा मनभावन ग्रीष्मकाल।।6।।

            समुद्गतस्वेदचिताङ्गसन्धयो विमुच्य वासांसि गुरूणि साम्प्रतम् ।
स्तनेषु तन्वंशुकमुन्नतस्तनाः निवेशयन्ति प्रमदाः सयौवनाः।।7।।
प्रतिक्षण प्रतिसन्धि स्वेदपीड़ित युवतीजन मोटे वस्त्र फेंक,
उन्नत पयोधरों को ढँकतीं झीना सा ले लघु चीर एक,
यौवन कब छुपे छुपाने से, उन्माद छलकता बार बार।
ऐसा मनभावन ग्रीष्मकाल।।7।।

            सचन्दनाम्बुव्यजनोद्भवानिलैः सहारयष्टिस्तनमण्डलार्पणैः ।
सवल्लकीकाकलिगीतनिष्वनैः विबोध्यते सुप्त इवाद्य मन्मथाः।।8।।
गंधित चन्दन-जल से सिंचित व्जनों की पा सुखदा बहार,
हारार्पित पाकर तन्वी तन अर्पित उरोज मण्डलाकार,
वासना उमड़ती हर मन में काकलि सुन वीणा मधुर तार।
आया मनभावन ग्रीष्मकाल।।8।।

            सितेषु हर्म्येषु निशासु योषितां सुखप्रसुप्तानि मुखानि चन्द्रमाः ।
विलोक्य नूनं भृशमुत्सुकश्चिरं निशाक्षये याति ह्रियेव पाण्डुताम् ।।9।।
सुन्दर प्रासादों में सुख से सोती सुन्दरियों के सुन्दर,
परिश्रान्त तृप्त मुखमण्डल की मादक मोहक आभा लख कर,
मानो लज्जा से क्लान्त शान्त चल दिया चन्द्रमा प्रातकाल।
लो आया प्रेयसि! ग्रीष्मकाल।।9।।

            असह्यवातोद्धतरेणुमण्डला प्रचण्डसूर्यातपतापिता मही ।
न शक्यते द्रष्टुमपि प्रवासिभिः प्रियावियोगानलदग्धमानसैः।10।।
प्रेयसि! वियोग की ज्वाला में जल गया कि जिनका तन मन है,
असमर्थ नयन उनके न खुलें जब चलता तीव्र प्रभंजन है,
नभ में तो धूल भरी आँधी सन्तप्त धरा पर अग्निज्वाल।
है ऐसा कैसा ग्रीष्मकाल।।10।।

            मृगाः प्रचण्डातपतापिता भृशं तृषा महत्या परिशुष्कतालवः ।
वनान्तरे तोयमिति प्रधाविता निरीक्ष्य भिनाञ्जनसन्निभं नभः।।11।।
प्रेयसि! प्रचण्ड आतप से तप प्यासे मृग दौड़ें आस-पास,
पर जलदहीन लख नीला नभ जा रहे त्याग निज निज निवास,
मिल जाय स्यात् अन्यत्र नीर इस आशा में हैं सब निढाल।.
देखो यह कैसा ग्रीष्मकाल।।11।।

            सविभ्रमैःसस्मितजिह्मवीक्षितैः विलासवत्यो मनसि प्रवासिनाम् ।
अनङ्गसन्दीपनमाशु कुर्वते यथा प्रदोषाः शशिचारुभूषणाः ।।12।।
ज्यों चन्द्रकिरण-रम्या सन्ध्या करती कामुकजन पर प्रहार,
वैसे ही अब मधुमास और मादक कटाक्ष कर बार बार,
आतुर प्रवासियों के मन में जनतीं कामिनियाँ कामज्वार,
आ गया प्रिये! अब ग्रीष्मकाल।।12।।

            रवेरमयूखैरभितापितो भृशं विदह्यमाना पथि तप्तपांसुभिः।
अवाङ्मुखो जिह्मगतिः श्वसन्मुहुः फणी मयूरस्य तले  निषीदति।।13।।
रविकिरणों से सन्तप्त तप्त पथ धूलधूसरित महाकाल,
निज वैरभाव तिर्तयग्जगति तज फैला फैला निज फन विशाल,
मोरों की पुच्छल छाया में पा रहे  शैत्य का लाभ व्याल ।
आश्चर्य कि कैसा ग्रीष्मकाल ।।13।।

            तृषा महत्या हतविक्रमोद्यमः श्वसन्मुहुर्दूरविदारिताननः।
न हन्त्यदूरेSपि गजान्मृगेश्वरो विलोलजिह्वश्चलिताग्रकेसरः।।14।।
चुक गया पराक्रम चुका नीर उद्यम भूले केसरिकराल,
प्यासे,मुँह फाड़े,श्वास खींच, जिह्वा निका,चंलचल अयाल,
सन्निकट खड़े गजराजों परगजराज न कर पाते प्रहार ।
आया यह कैसा  क्रूर काल ! ।।14।। 

            विशुष्ककण्ठाहृतसीकराम्भसो गमस्तिभिर्भानुमतोSनुतापिताः।
प्रवृद्धतृष्णोपहता जलार्थिनो न दन्तिनः केसरिणोSपि विभ्यति ।।15।।
सन्तप्त सूर्य की किरणों से आकुल व्याकुल गजराज आज,
हैं बूँद बूँद जल को तरसें है उदासीन उनका समाज,
प्यासे प्यासे सब भटक रहे सिंहों का भय मन से निकाल ।
प्रेयसि! ऐसा यह ग्रीष्म काल ।।15।।

            हुताग्निकल्पैः सवितुर्गभस्तिभिः कलापिनःक्लान्तशरीरचेतसः।
न भोगिनः घ्नन्ति समीपवर्तिनं कलापचक्रेषु निवेषिताननम् ।।16।।
वन में मयूर धू-धू करती रवि किरणों से हो श्रान्त क्लान्त,
निज पिच्छ भाग में मुँह डाले फणियों के प्रति निश्चिन्त शान्त,
तज आज परस्पर वैर भाव संग संग विचरें पिक और व्याल ।
आया ऐसा यह ग्रीष्म काल ।।16।।

            सभद्रमुस्तं परिशुष्ककर्दमं सरः खनन्नायतपोतृमण्डलैः।
रवेरमयूखैरभितापितो भृशं वराहयूथो विशतीव भूतलम् ।।17।
रवि किरणों से लगभग सूखे तालों में शूकर अस्त व्यस्त,
कीचड़ में मोथे खोदें यूँ थूथन पसार कर समाश्वस्त,
ज्यों ताप मुक्ति हित भूतल में निश्चय प्रवेश का हो विचार,
आया सखि ! ऐसा ग्रीष्म काल ।।17।।

            विवस्वता तीक्ष्णतरांशुमालिना सपङ्कतोयात्सरसोSभितापितः ।
उत्प्लुत्य भेकस्तृषितस्य भोगिनः फणातपत्रस्य तले निषीदति ।।18।।
अतितीक्ष्ण तप्त रवि किरणों से जलपंक सहित सन्तप्त ताल,
जिससे बाहर आकर मेंढक भर भर कर अति ऊँची उछाल,
प्यासे साँपों के छत्र सदृश फन के नीचे बैठे निढाल ।
ऐसा आया सखि ! ग्रीष्म काल ।।18।।

            समुद्धृताशेषमृणालजालकं विपन्नमीनं द्रुतभीतसारसम् । 
परस्परोत्पीडनसंहतैर्गजैः कृतं सरः सान्द्रविमर्दकर्दमम् ।।19।।
सन्तप्त परस्पर जूझ रहे गजराजों ने मथ दिया ताल,
हैं मीन तड़पतीं व्याकुल तन बगुलों ने भी तज दिया ताल,
गजदल  मर्दित जड़ से उखड़े हैं पड़े ताल में कमल नाल,
आया ऐसा सखि ! ग्रीष्म काल ।।19।।

            रविप्रभोद्भिन्नशिरोमणिप्रभो विलोलजिह्वाद्वयलीढमारुतः ।
विषाग्निसूर्यातपतापितः फणी न हन्ति मण्डूककुलं तृषाकुलः ।।20।।
विषदाह दाह फिर सूरज का ऊपर से प्यास भयंकर है,
रवि की किरणों में चमक उठीं फणियों की मणियाँ फन पर हैं,
मंडूकों से मुँह मोड़ प्रिये ! पी रहे पवन कुन्तल कराल ।
आया ऐसा यह ग्रीष्म काल ।।20।।

            सफेनलोलायतवक्त्रसम्पुटं विनिःसृतालोहितजिह्वमुन्मुखम् ।
तृषाकुलं निःसृतमद्रिगह्वरात् अवेक्ष्यमाणं महिषीकुलं जलम् ।।21।।
देखो गिरि गह्वर से बाहर आ रहा निकल कर अतिविशाल,
महिषी दल; जिनके थूथन से तृष्णावश है बह रही लार,
सब लुब्ध जलाशय खोवीज रहीं निज लाल लाल जिह्वा निकाल ।
आ गया प्रिये ! यह ग्रीष्म काल ।।21।।

            पटुतरदवदाहोच्छुष्कसस्य प्ररोहाः परुषपवनवेगोत्क्षिप्तसंशुष्कपर्णाः।
दिनकरपरितापक्षीणतोयाः समन्ताद् विदधति भवमुच्चैर्वीक्ष्यमाणा वनान्ताः ।।22।।
धू धू करते दावानल से हैं झुलस चुके जो पुष्प पत्र ,
वे तीव्र पवन के झोकों से उड़ रहे चतुर्दिक यत्र तत्र ,
हो उठे भयानक वन वनान्त जल का सर सरिता में अकाल ।
आ गया वही सखि ! ग्रीष्म काल ।।22।।

            श्वसिति विहगवर्गः शीर्णपर्णद्रुमस्थः कपिकुलमुपयाति क्लान्तमद्रेर्निकुञ्जम् ।
भ्रमति गवयवूथः सर्वतस्तोयमिच्छन् शरभकुलमजिह्मं प्रोद्धरत्यम्बुकूपात् ।।23।।
ठूँठों पर विवश पक्षियों ने देखो ले लिया बसेरा है,
गिरि कुंजों में छाया पा कर कपि कुल ने डाला डेरा है,
प्यासे चमरी मृग भटक रहे मृग मरीचिका ने घेरा है,
निज कुटिल भाव तज शान्त शरभ पी रहे कूप से जल निकाल ।
आया सखि ! ऐसा् ग्रीष्म काल ।।23।।

            विकचनवकुसुम्भस्वच्छसिन्दूरभासा प्रबलपवनवेगोद्भूतवेगेन तूर्णम् ।
तटविटपलताग्रालिङ्गनव्याकुलेन दिशि दिशि परिदग्धा भूमयः पावकेन ।।24।।
नव कुसुम स्वच्छ सिन्दूर सदृश पा पवन वेग अति तेजवान्,
तरु-लता-कुंज का आलिंगन करने को व्याकुल दीप्तिमान्,
पर दावानल से यत्र तत्र परिदग्ध धरा का बुरा हाल ।
आया कैसा यह ग्रीषम काल ! ।।24।।

            ज्वलति पवनवृद्धः पर्वतानां दरीषु स्फुटित पटुनिनादैः शुष्कवंशस्थलीषु । 
प्रसरति तृणमध्ये लब्धवृद्धिक्षणेन ग्लपयति मृगवर्गं प्रान्तलग्नो दवाग्निः।।25।।
पा पवन वेग गिरि गह्वर में धू धू दावानल धधक उठा,
सूखे बाँसों में फैल फैल कर पटु निनाद जो भभक उठा,
तृण दल जो क्षण में जला उधर सारे पशुओं का बना काल ।
आया जब ऐसा ग्रीष्म काल आया जब ऐसा ग्रीष्म काल ।।25।।

            बहुतर इव जातःशाल्मलीनां वनेषु स्फुरति कनकगौरः कोटरेषु द्रुमाणाम् ।
परिणतदलशाखानुत्पतन्प्रांशु वृक्षान् भ्रमति पवनधूतः सर्वतोSग्निर्वनान्ते ।।26।।
झंझा से प्रेरित दावानल है घूम रहा वन अन्तर में,
सेमर वन को कर भस्मसात स्वर्णाभ बिखेरे कोटर में,
ऊँचे ऊँचे पर्वताकार तरु शाखाओं का बना काल ।
आया देखो यह ग्रीष्म काल ।।26।।

            गजगवयमृगेन्द्रा वह्निसन्तप्तदेहाः सुहृद इव समेता द्वन्द्वभावं विहाय ।
हुतवहपरिखेदादाशु निर्गत्य कक्षाद् विपुलपुलिनदेशान्निम्नगां संविशन्ति ।।27।।
गज मृग मृगपति सन्तप्त सभी तज वैर भाव हो एक साँस,
दावानल से परिखिन्न शीघ्र हैं छोड़ छाड़ निज निज निवास,
जारहे चले उस ओर जिधर बहता नद जल-परिपूर्ण ताल ।
आया प्रेयसि ! वह ग्रीष्म काल।।27।।

            कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः सुखसलिलनिषेकः सेव्यचन्द्रांशुहाराः ।
व्रजतु तव निदाघः कामिनीभिः समेतो निशि सुललितगीते हर्म्यपृष्ठे सुखेन ।।28।।
भर जाते जब सर कमलों से जब पाटल दल गमकें सुरम्य,
सुखदायी लगता नित्य स्नान जब सेव्य चन्द्रिका  धवल रम्य,
कामिनि! घिरने पर रात्रि प्रहर तुम ललित गीत झंकृत विशाल,
प्रासादों में सुख से रह कर करना व्यतीत यह ग्रीष्म काल ।।28।।


                                            द्वितीय सर्ग
                         
                             वर्षा  ऋतु  वर्णन

            ससीकराम्भोधरमत्तकुञ्जरः तडित्पताकोSशनिशब्दमर्दलः ।
समागतो राजवदुद्धतद्युतिः घनागमः कामिजनप्रियः प्रिये ।।1।।
जल भरे मत्त कुंजर से घन विद्युत् ध्वज से शोभित महान्,
गर्जन से कर अतिशयित वज्र भूपति स्वरूप उद्धत महान्,
आये छाये घनघोर मेघ जो कामीजन को मनभावन।
ऐसी वर्षा का अभिनन्दन,प्रेयसि ! इस ऋतु को करो नमन ।।1।।

            नितान्तनीलोत्पलपत्रकान्तिभिः क्वचित्प्रभिन्नाञ्जनराशिसन्निभैः ।
क्वचित्सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितं व्योमघनैः समन्ततः ।।2।।
अतिनील कमल से कहीं श्याम अंजन समूह नयनाभिराम,
प्रिय गर्भवती कामिनियों के पयभरे कुचों सम कान्तिमान,
मेघों से देखो भरा व्योम प्रकृति का सुन्दर संयोजन ।
य़ह अनुपम वर्षा ऋतु पावन, तुम करो प्रिये! इसका वन्दन ।।2।।

            तृषाकुलैश्चातकपक्षिणां कुलैः प्रयाचितास्तोयभरावलम्बिनः ।
प्रयान्ति मन्दं बहुधारवर्षिणः बलाहकाः श्रोत्रमनोहरस्वनाः ।।3।।
प्यासे चकवा चकई को प्रिय, जल से बोझिल फिर झुके झुके,
मूसलाधार वर्षक जल के मद्धिम गति कुछ कुछ रुके रुके,
मधुरध्वनि उड़ते मेघ उधर कर रहे धरा का अभिसिंचन।
आयी ऐसी ऋतु मनभावन तुम करो प्रिये! इसका वन्दन ।।3।।

            बलाहकाश्चाशनिशब्दमर्दलाः सुरेन्द्रचापं दधतस्तडिद्गुणम् ।
सुतीक्ष्णधारापतनोग्रसायकैः तुदन्ति चेतः प्रसभं प्रवासिनाम् ।।4।।
वज्रध्वनि सा कर घोष तुमुल विद्युत्-शर धर प्रत्यंचा पर,
ये मेघ इन्द्र सा धनुष लिये मूसलाधार कर वृष्टि प्रखर,
व्याकुल करते उनका तन-मन जो दूर दूर हैं विरही जन,
ऐसी ऋतु का देखो नर्तन,फिर करो प्रिये उसका वन्दन ।।4।।

            प्रभिन्नवैदूर्यनिभैस्तृणाङ्कुरैः समाचिता प्रोत्थितकन्दलीदलैः ।
विभाति शुक्लेतररत्नभूषिता वराङ्नेव क्षितिरिन्द्रगोपकैः ।।5।।
ज्योतिर्मय मणि वैदूर्य सदृश अंकुरित तृणों से सम्भूषित,
नव कदली दल से सजी धजी धरती का तन यों समलंकृत-
ज्यों खड़ी रूपसी रत्नजटित पहिने आभूषण भूषित तन,
प्रेयसि! वर्षा की ऋतु ऐसी आयी कर लो उसका वन्दन ।।5।।

            सदा मनोज्ञं स्वनदुत्सवोत्सुकं विकीर्णविस्तीर्णकलापशोभितम् ।
ससंभ्रमालिङ्नचुम्बनाकुलम् प्रवृत्तनृत्यं कुलमद्य बर्हिणाम् ।।6।।
प्रेयसि! उतसवप्रिय मोर आज निज तान छोड़ कर मतवाली,
रंगीन पसारे पंख रम्य कर रहे नृत्य देखो आली!,
आकुल चुम्बन आलिंगन को सम्भ्रमित कि हैं चंचल-गति-मन ।
ऐसी वर्षा का अभिनन्दन ।।6।।

            निपातयन्यः परितस्तटद्रुमान्प्रवृद्धवेगैः सलिलैरनिर्मलैः ।
स्त्रियः सुदुष्टा इव जातिविभ्रमाः प्रयान्ति नद्यस्त्वरितं पयोनिधिम् ।।7।।
प्रेयसि! मटमैली सरिताएँ अति तीव्र वेग से बहतीं जब,
तटवर्ती तरुओं को उखाड़ जलनिधि से यूँ जा मिलतीं जब,
लगतीं कुलटाओं सी आकुल कर रहीं भटकतीं काम शमन ।
वर्षा ऋतु ऐसी मन भावन,करिये प्रेयसि! उसका वन्दन ।।7।।

            तृणोत्करैर्रुद्गतकोमलाङ्कुरैः विचित्रनीलैर्हरिणीमुखक्षतैः ।
वनानि वैन्ध्यानि हरन्ति मानसं विभूषितान्युद्गतपल्लवैर्द्रुमैः ।।8।।
प्रेयसि! वन हैं सर्वत्र आज अंकुरित तृणों से हरे-भरे,
मृगियाँ जिनमें चर रहीं निडर पल्लव दल से तरु भरे-भरे,
कर रहे सभी को आन्दोलित हर रहे सभी का कोमल मन ।
प्रेयसि! ऐसी वर्षा ऋतु का हम करें आज मन से वन्दन ।।8।।


विलोलनेत्रोत्पलशोभिताननैः मृगैः समन्तादुपजातसाध्वसैः ।
समाचिता सैकतिनी वनस्थली समुत्सुकत्वं प्रकरोति चेतसः.।।9।।
वनचर हिंसक पशुओं से सखि! यद्यपि वनस्थली है संकुल,
फिर भी विश्रब्ध केलिरत वे भऱ रहे चौकड़ी हैं मृगदल,
जिनके सरसिज से चपल नयन, हो उठें धन्य जिनसे कानन।
ऐसी सुखदायी वर्षा ऋतु, प्रेयसि! ऐसी ऋतु का वन्दन ।।9।।

अभीक्ष्णमुच्चैर्ध्वनिता पयोमुचा घनान्धकारीकृतशर्वरीष्वपि ।
तडित्प्रभादर्शितमार्गभूमयः प्रयान्ति रागादभिसारिकाः स्त्रियः ।।10।।
घन घनीभूत तमसाच्छादित, घन गर्जन से भयपूर्ण निशा,
सब मार्ग वृष्टि से आपूरित अतिशय पंकिल है सकल दिशा,
फिर भी चल देतीं कामिनियाँ अभिसार हेतु हो काम-प्रवण -
तब तडित् ज्योति मग आलोकित करते जो घन उनका वन्दन।।10।।

पयोधरैर्भीमगभीरनिस्वनैस्तडिद्भिरुद्वेजितचेतसो भृशम् ।
कृतापराधानपि योषितः प्रियान् परिष्वजन्ते शयने निरन्तरम् ।।11।।
खण्डिता नारियाँ पतियों के अपराध भूल- आरूढ-शयन,
करतीं आलिंगन बार बार कुछ भीत किन्तु कुछ भाव-प्रवण।
प्रेयसि! ऐसी यह वर्षा ऋतु, फिर क्यों न करे मन का मन्थन।।11।।
  
विलोचनेन्दीवरवारिविन्दुभिः निषिक्तविम्बाधरचारुपल्लवाः ।
निरस्तमाल्याभरणानुलेपनाः स्थिता निराशाः प्रमदाः प्रवासिनाम् ।।12।।
प्रेयसि! प्रोषितपतिकाओं के नयनों से देखो बहा नीर,
कोमल किसलय से रक्त अधर हैं भीग चले खो गया धीर,
अनुलेप कहाँ ? अब माल्यहीन आभरणहीन है सबका तन ।
पति का प्रवास करता निराश, ऐसे दुर्दिन का अभिनन्दन ।।12।। 

विपाण्डुरं कीटरजस्तृणान्वितं भुजङ्वद्वक्रगति प्रसर्पितम् ।
ससाधवसैर्भेककुलैर्निरीक्षितं प्रयातति निम्नाभिमुखं नवोदकम्.।।13।।
पंकिल मटमैली तृणाच्छन्न बह चली अधोमुख जलधारा,
गति वक्र कि जैसे रेंग रहा कोई विषधर कुन्तल काला,
ये जिसे देख कर भयाक्रान्त सहमें सहमें है दर्दुरगण।
आयी ऐसी वर्षा की ऋतु,करलो प्रेयसि! उसका वन्दन ।।13।।

विपत्रपुष्पां नलिनीं समुत्सुकाः विहाय भृङ्गाः श्रुतिहारिनिस्वनाः ।
पतन्ति मूढाः शिखिनां प्रनृत्यतां कलापचक्रेषु नवोत्पलाशयाः ।।14।।
गुन गुन करते चंचल भौंरे बूढ़ी नलिनी से हो विरक्त,
नूतन नलिनी के मधुरस की लिप्सा से हो मतिभ्रान्त मत्त,
जा टूट पड़े लख नृत्यलीन मोरों के विस्तृत पिच्छसघन ।
केकी पिच्छों से पद्मभ्रान्ति जनने वाली ऋतु का वन्दन ।।14।।

नवद्विपानां नववारिदस्वनैः मदान्वितानां ध्वनतां महुर्मुहः ।
कपोलदेशा विमलोत्पलप्रभाः सभृङ्यूथैर्मदवारिभिश्चिताः ।।15।।
सुन घोर गर्जना मेघों की हो उठे उधर गजराज मस्त,
मद से भींगे जिनके कपोल शोभित हैं कमलों से समस्त,
उन पर हैं भौंरे झूम रहे मधु रस का करते आस्वादन ।
प्रेयसि! आयी यह वर्षा ऋतु आओ करलें इसका वन्दन।।15।।

सितोत्पलाभाम्बुदचुम्बितोपलाः समाचिताः प्रस्रवणैः समन्ततः ।
प्रवृत्तनृत्यैः शिखिभिः समाकुलाः समुत्सुकत्वं जनयन्ति भूधराः ।।16।।
सित कमल सदृश सित मेघ प्रिये! पर्वत की चोटी चूम रहे,
करके परिक्रमा पर्वत की झर झर निर्झर हैं झूम रहे,
हैं नाच रहे वन में मयूर पर्वत लगते ज्यों नन्दन वन ।
कौतुक के इस कारण की इस कारक वर्षा का अभिनन्दन ।।16।।

            कदम्बसर्जार्जुनकेतकीवनं विकम्पयंस्तत्कुसुमाधिवासितः ।
ससीकराम्भोधरसङ्शीतलः समीरणः कं न करोति सोत्सुकम् ।।17।।
प्रेयसि! कदम्ब-केतकी-शाल-साखू-तरुओं को कंपित कर,
उनके सुरम्य पुष्पों की प्रिय मादक सुगन्धि से सुरभिततर,
मेघों का पा सम्पर्क प्रिये! शीतल जल-कण सम्पृक्त पवन,
कर दे न किसे व्याकुल बोलो , ऐसी ऋतु का करलो वन्दन ।।17।।

           शिरोरुहैः श्रोणितटावलम्बिभिः कृतावतंसैः कुसुमैः सुगन्धिभिः ।
स्तनैः सहारैर्वदनैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं सञ्जनयन्ति कामिनाम् ।।18।।
कटितट तक लम्बित केशराशि सुरभित कुसुमों से कर सिंगार,
उन्नत पयोधरों तक अपने लटकाकर मादक दिव्य हार,
उच्छ्वासों से मदिरा छलका आसव वासित कर शुभ्रवदन-
कामिनियाँ करतीं मन मंथन , ऐसी ऋतु का प्रेयसि! वन्दन ।।18।।
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तडिल्लताशक्रधनुर्विभूषिताः पयोधरास्तोयभरावलम्बिनः ।  
स्त्रियश्च काञ्चीमणिकुण्डलोज्ज्वलाः हरन्ति चेतो युपगपत्प्रवासिनाम् ।।19।।
विद्युत्प्रकाश से आलोकित फिर इन्द्रधनुष से रम्यरूप,
जल भरे मेघ हैं इधर उधर करधन मणि कुण्डल रम्यरूप,
ऐसी पयोधरा झुकी झुकी झुक गये कि जैसे जलद सघन-
समरूप लुभाते पथिकों को , ऐसी ऋतु का भी अभिनन्दन ।।19।।

मालाः कदम्बनवकेसरकेतकीभिः आयोजिताः शिरसि विभ्रति योषितोSद्य ।
कर्णान्तरेषु ककुभद्रुममञ्जरीभिः इच्छानुकूलरचितानवतंसकांश्च ।।20।।
प्रेयसि! पराग रंजित कदम्ब-केतकी पुष्प की मालाएँ,
धारण करके निज केशों में आह्लादित-मुख हैं ललनाएँ,
कानों में ककुभ-द्रुम मंजरि धर कामिनियाँ कर नव सिंगार,
इच्छानुकूल हैं मुदित-मना ऐसी है यह बरखा - बहार ।।20।।

            कालागुरुप्रचुरचन्दनचर्चिताङ्यः पुष्पावतंससुरभीकृतकेशपाशाः ।
श्रुत्वा ध्वनिं जलमुचां त्वरितं प्रदोषे शय्यागृहं गुरुगृहात्प्रविशन्ति नार्यः ।।21।।
कालागुरु चन्दन से चर्चित हैं अंग अंग जिनके शोभित,
पुष्पाभरणों से समलंकृत हैं केशपाश जिनके सुरभित,
सुन तुमुल गर्जना ललनाएँ गुरुगृह का शिष्टाचार त्याग ।
निज शयन कक्ष की ओर चलीं देखो पानी में लगी आग ।।21।।

कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयनम्रैः मृदुपवनविधूतैर्मन्दमन्दं चलद्भिः ।
अपहृतमिव चेतस्तोयदैः सेन्द्रचापैः पथिकजनवधूनां तद्वियोगाकुलानाम् ।।22।।
कुवलय दल से नीले नीले जल से बोझिल कुछ झुके झुके,
मृदुपवन प्रचालित धनुधारी गतिहीन बने कुछ रुके रुके,
ये मेघ पथिक वधुओं के मन हर रहे जगाते काम ज्वार ।
प्रोषितपतिकाएँ हैं व्याकुल आयी ऐसी बरखा बहार ।।22।

मुदित इव कदम्बैर्जातिपुष्पैः समन्तात् पवनचलितशाखैः शाखिभिर्नृत्यतीव ।
हसितमिव विधत्ते सूचिभिः केतकीनां नवसलिलनिषेकच्छिन्नतापो वनान्तः ।।23।।
मुकुलित कदम्ब नवज्योति कुसुम प्रमुदित हो ज्यों कानन सारा,
डाली डाली हिल रही कि ज्यों हो मुदित नाचता वन सारा,
खिल उठीं केतकी की बालें वन बिहस उठा बह चली धार ।
मिट गया ताप आनन फानन आयी ऐसी बरखा बहार ।।23।।

शिरसि बकुलमालां मालितीभिः समेतां विकसितनवपुष्पैर्यूथिकाकुड्मलैश्च ।
विकचनवकदम्बैः कर्णपूरं वधूनां रचयति जलदौघः कान्तवत् काल एषः ।।24।।
शुभ बकुल-मालती-जूही की कलियों से कर शिर का सिंगार,
प्रेयसि! कदम्ब के कर्णफूल रच कर बधुओं का कर सिंगार,
ज्यों उन्हें लुभाते उनके पति वैसे वर्षा की कर फुहार-
कामिनियों का मन मोह रहे,ये जलद,सुखद बरखा बहार ।।24।।

दधति वरकुचाग्रैरुन्नतैर्हारयष्टिं  प्रतनुसितदुकूलान्यायतैः श्रोणिबिम्बैः ।
नवजलकणसेकादुद्गतां रोमराजीं ललितवलिविभङ्गैर्मध्यदेशैश्च नार्यः ।।25।।
शीतल फुहार से रोमांचित हो उठीं प्रफुल्लित ललनाएँ,
तन गये कुचों के अग्र बिन्दु टिक गयीं कि जिन पर मालाएँ,
रोमांचित पृथुल नितम्बों पर संकुचित दुकूलों का विकार -
त्रिवली पर रोम रोम जागा नाभी से फूटा कामज्वार ।।25।।

नवजलकणसङ्गाच्छीततामादधानः कुसुमभरनतानां लासकः पादपानाम् ।
जनितरुचिरगन्धः केतकीनां रजोभिः परिहरति नभस्वान्प्रोषितानां मनांसि ।।26।।
फूलों से लदे पादपों के मिल गले बह रहा मन भावन-
नूतन जल कण से हो सिंचित शीतल सुखदायी दिव्य पवन,
केतकी पुष्प का ले पराग शुभ गन्ध लुटा जाता बयार-
प्रेयसि! वियोगियों के मन में भूचाल मचा जाता बयार ।।26।।

जलधरवनितानामाश्रयोSस्माकमुच्चैः अयमिति जलसेकैस्तोयदास्तोयनम्राः ।
अतिशयपरुषाभिर्ग्रीष्मवह्नेः शिखाभिः समुपजनिततापं ह्लादयन्तीव विन्ध्यम् ।।27।।
हमारी वनिताओं को विऩ्ध्य सदा ही देता है विश्राम,
मान कर मन में यह उपकार जलद जलभार झुके अविराम-
ग्रीष्म के दावानल से तप्त विन्ध्य श्रृंगों को कर के शान्त-
व्यक्त करके अपना आभार ताप हर लेते करके क्लान्त ।।27।।

बहुगुणरमणीयः कामिनीचित्तहारी तरुविटपलतानां बान्धवो निर्विकारः ।
जलदसमय एषः प्राणिनां प्राणभूतो दिशतु तव हितानि प्रायशो वाञ्छितानि ।।28।।
प्रेयसि! वर्षा ऋतु आते ही चहुँ दिशि हरियाली छा जाती,
हर जीव मुदित मन हो जाता कामिनियों को यह मन भाती,
तरु-लिपटी चपल लताओं को सौन्दर्य बाँटती बार बार ।
जी भरकर लूटो इसका सुख जाये न चली बरखा बहार ।।28।।

                                तृतीय सर्ग
                            शरद  ऋतु  वर्णन
काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसनूपुरनादरम्या ।
आपक्वशालिरुचिरातनुगात्रयष्टिःप्राप्ता शरन्नववधूरिव रूपरम्या ।।1।।
काशपुष्प की पहने साड़ी दुलहन नयी नवेली ज्यों,
हंसों के चलने पर झुन झुन झंकृत होते नूपुर ज्यों,
खिले कमल सी सुमुखी जैसी आयी ऋतु धर रूप नये,
पके धान सी कंचन काया रूपमती ऋतु शरत् प्रिये! ।।1।।

काशैर्मही शिशिरदीधितिना रजन्यो हंसैर्जलानि सरितां कुमुदैःसरांसि ।
सप्तच्छदैःकुसुमभारनतैर्वनान्ताःशुक्लीकृतान्युपवनानि च मालितीभिः ।।2।।
कासों के फूलों से धरती है धवल निशा शशि किरणों से,
हंसों से धवलित सरिताएँ हैं धवल सरोवर कुमुदों से,
खिले सप्तच्छद झुकी डालियाँ हुए धवल उपवन कानन,
खिली मालती तन मन गमका दमक उठा वन का आँगन ।।2।।

चञ्चन्मनोज्ञशफरी रसनाकलापाःपर्यन्तसंस्थितसिताण्डजपंक्तिहाराः ।
नद्यो विशालपुलिनान्तनितम्बबिम्बाः मन्दं प्रयान्ति समदा प्रमदा इवाद्य ।।3।।
जलक्रीडालीन शफरियों सी सुन्दर करधन कटि पर डाले,
शफरी अंडों से बने हार सरिताएँ निज तन पर धारे,
ज्यों पृथुल नितम्बों से बोझिल उन्मत्त नारियाँ चलती हैं,
चौड़े पाटों में इस ऋतु में मन्थरगति नदियाँ बहती हैं ।।3।।

व्योमः क्वचिद्रजतशङ्खमृणालगौरैः त्यक्ताम्बुभिर्लघुतया शतशः प्रयातैः ।
संलक्ष्यते पवनवेगचलैः पयोदैः राजेव चामरवरैरुपसेव्यमानः ।।4।।
चाँदी सम शंख-मृणाल सदृश जलभारहीन अति शुभ्ररूप,
पवनान्दोलित मेघों से प्रिय शोभित यों देखो व्योम-भूप,
ज्यों भव्यरूप राजा कोई बैठा हो निज सिंहासन पर,
हों चँवर डुलाते सेवकजन चहुँ दिशि से उसके आनन पर ।।4।।

भिनाञ्जनप्रचयकान्तिनभोमनोज्ञं वन्धूकपुष्परचितारुणता च भूमिः ।
वप्राश्च चारुकमलावृतभूमिभागाः प्रोत्कण्ठयन्ति न मनो भुवि कस्य यूनः ।।5।।
काजल से काले मतवाले मेघों से शोभित हुआ व्योम,
रक्तिम बन्धूक खिले प्रेयसि! पुलकित धरती का रोम रोम,
विकसित कमलों की आभा से आवृत्त चतुर्दिक हुई धरा,
हैं उत्कण्ठित सब जड़ चेतन रत्युत्सुक मन आनन्द भरा ।।5।।
                               अथवा
कज्जलशोभित नभ कहीं कहीं बन्धूकपुष्प से ऱम्य मही,
कमलों से ढँके तालाब किसे कर दें न कहो मनमस्त किसे? ।।5।।

मन्दानिलाकुलितचारुतराग्रशाखः पुष्पोद्गमप्रचयकोमलपल्लवाग्रः ।
मत्तद्विरेफपरिपीतमधुप्रसेकः चित्तं विसारयति कस्य न कोविदारः ।।6।।
चल रहा पवन प्रिय मन्द-मन्द आकुलित डोलती डाल डाल,
है पोर पोर कोपल कोपल कचनार खिला मधुरस रसाल,
आकर पीते मधु मधुप जहाँ ऐसी मधुशाला शरत् काल,
कर दे न कहो किसको व्याकुल शुभसौम्यरूप नव कोविदार ।।6।।

तरागणप्रवरभूषणमुद्वहन्ती मेघावरोधपरिमुक्तशशाङ्कवक्त्रा ।
ज्योत्स्नादुकूलममलं रजनी दधाना वृद्धिं प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला ।।7।।
प्रिय निष्कलंक शुभचन्द्रमुखी तारों के आभूषण धारे,
लावण्ययुक्त रजनी प्रेयसि! ज्योत्स्ना दुकूल तन पर डाले,
पल पल बढ़ती जाती ऐसे,हो वयःसन्धि पर ज्यों बाला,
इस शरत् काल में वैसे ही बढ जाती है रजनीबाला ।।7।।

कारण्डवाननविघट्टितवीचिमालाः कादम्बसारसचयाकुलतीरदेशाः।
कुर्वन्ति हंसविरुतैः परितो जनस्य प्रीतिं सरोरुहरजोरुणितास्तटिन्यः ।।8।।
जलकाग छोड़ कर लहरों को कर रहे केलि सरिताओं से,
कलहंस-सारसों से कूजित देखो तट हैं सरिताओं के,
सरसिज रज से नदियाँ प्यारी हो उठीं आज कुछ लाल लाल,
रतिभाव जगाती हंसध्वनि आया है जब से शरत् काल ।।8।।

            नेत्रोत्सवो हृदयहारिमरीचिमालःप्रह्लादकःशिशिरसीकरवारिवर्षी ।
पत्युर्वियोगविषदिग्धशरक्षतानां चन्द्रो दहत्यतितरां तनुमङ्गनानाम् ।।9।।
निज किरणहार से संशोभित नयनाभिराम शशि शुभ्रवदन,
कर शरत् काल की रातों में शीतल तुषार की वृष्टि सघन,
विरहाकुल कामिनियों पर कर विष बुझे कामशर से प्रहार,
करता क्षत विक्षत अंग अंग आया है जब से शरत् काल ।।9।।

            आकम्पयन्फलभरानतशालिजालानानर्तयंस्तरुवरान्कुसुमावनम्रान् ।
उत्फुल्लपंकजवनां नलि्नीं विधुन्वन् यूनां मनश्चलयति प्रसभं नभस्वान् ।।10।।
धानों के खेतों में प्रेयसि! कम्पित कर दानों भरी बाल,
है मस्त झुलाता बागों में तरुओं की फूलों भरी डाल,
कमलों को, खिली कमलिनी को झकझोर झुला जाता बयार,
युवकों को रोमांचित करता आया जब से यह शरत् काल ।।10।।

            सोन्मादहंसमिथुनैरुपशोभितानि स्वच्छप्रफुल्लकमलोत्पलभूषितानि ।
मन्दप्रभातपवनोद्गतवीचिमालानुत्कण्ठयन्ति सहसा हृदयं सरांसि ।।11।।
प्रेयसि! सरोवरों के जल में हैं कामकेलि रत हंस मिथुन,
हैं स्वच्छ कमल भी झम रहे प्रेरक प्रभात का पूत प्रवन,
इठलाती और मचलती सी लहरें बुनतीं नव दृश्य-जाल,
सहसा आन्दोलित कर देता तन-मन तडाग का रम्य भाल ।।11।।

            नष्टं धनुर्बलभिदो जलदोदरेषु सौदामिनी स्फुरति नाद्य वियत्पताका ।
धुन्वन्ति प्रक्षपवनैःन नभो बलाकाःपश्यन्ति नोन्तमुखा गगनं मयूराः।।12।।
मेघों के उदरों में प्रविष्ट प्रिय इन्द्रधनुष हो गया लुप्त,
हो गयी पताका छिन्न-भिन्न हो गयी तडित् की ज्योति सुप्त,
बगुले भी नभ में पंख झाड़ मेघों संग क्रीडा भूल गये,
ग्रीवा पसार कर हंस आज नभ को निहारना भूल गये ।।12।।

नृत्यप्रयोगरहितान् शिखिनो विहाय हंसानुपैति मदनो मधुरप्रगीतान् ।
मुक्त्वा कदम्बकुटजार्जुनसर्जनीपान् सप्तच्छदानुपगता कुसुमोद्गमश्री ।।13।।
जब शरत् काल के आते ही मोरों ने नर्तन छोड़ दिया,
तब चतुर काम ने गीतप्राण हंसों से नाता जोड़ लिया,
साखू-कदम्ब-कुटजार्जुन पर फूलों का खिलना रुका आज,
पर सप्तपर्ण का पोर-पोर खिल उठा पुष्पश्री रही राज ।।13।।

शेफालिकाकुसुमगन्धमनोहराणि स्वस्थस्थिताण्डजकुलप्रतिनादितानि ।
पर्यन्तसंस्थितमृगीनयनोत्पलानि प्रोत्कण्ठयन्ति उपवनानि मनांसि पुंसाम् ।।14।।
शेफालि सदृश नवकुसुमों की सुखदा सुगन्धि से संपूरित,
प्रेयसि! खगगण की प्रतिनादित कलकल की ध्वनि से संकूजित,
कमलों की पंखुणियों जैसे हिरणी के नयनों से विशाल,
उपवन मन मोह रहे सबका आया यह प्यारा शरत् काल ।।14।।

कह्लारपद्मकुमुदानि मुहुर्विधुन्वन् तत्संगमादधिकशीतलतामुपेतः ।
उत्कण्ठयत्यतितरां पवनःप्रभाते पत्रान्तलग्नतुहिनाम्बुविधूयमानः ।।15।।
पत्तों के पोरों पर सिमटे प्रेयसि! तुषार- कण हिला हिला,
फिर उधर श्वेत कुछ रक्त कमल कुमुदों के तन-मन झुला-झुला,
अति शैत्य समेटे आँचल में बह रहा कि यह जो शुभ बयार,
उत्कण्ठित कर डाले तन-मन ऐसा आया यह शरत् काल ।।15।।

सम्पन्नशालिनिचयावृतभूतलानि स्वस्थस्थितप्रचुरगोकुलशोभितानि ।
हंसैः ससारसकुलैः प्रतिनादितानि सीमान्तराणि जनयन्ति नृणां प्रमादम् ।।16।।
सखि! शरत् काल के आते ही ढँक गयी धान्य से धन्य धरा,
गोचर हैं हरे भरे,चहुँ दिशि पशुओं से शोभित रम्यतरा,
सारस हँसों के कलरव से हो उठे निनादित दिग्दिगन्त,
यह दृश्य देख सुन कर प्रसन्न हो रहे नारि-नर साधु सन्त ।।16।।

हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्नानां अम्भोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः ।
नीलोत्पलैर्मदकलानि विलोकितानि भ्रूविभ्रमाश्च रुचिरास्तनुभिस्तरंगैः ।।17।।
गजगामिनियों सी मन्थरगति हैं हंस डोलते इधर उधर,
कामिनियों की मधुचन्द्रकान्ति ले खिले कमल दल सर सरवर,
नयनों की नीली मदिर कान्ति ले खिले नील कमलों के दल,
ले लिया तरंगों ने प्रेयसि! तन्वी-भ्रू का विलास चंचल ।।17।।

श्यामा लताःकुसुमभारनतप्रवालाःस्त्रीणां हरन्ति धृतभूषणबाहुकान्तिम् ।
दन्तावभासविशदस्मितचन्द्रकान्तिं कङ्केलिपुषपरुचिरा नव मालती च ।।18।।
पुष्पों से बोझिल तरुओं की कोपलदल युक्त लताओं ने,
है कान्ति चुराली तन्वी की आभूषण-भूषित बाहों से,
प्रेयसि! अशोक के फूलों ने नव मालति की लताकाओं ने,
दन्तावलि भासित हासयुक्त पायी सुकान्ति अबलाओं से ।।18।।

केशान्नितान्तघननीलविकुञ्चिताग्रानापूरयन्ति वनिता नवमालतीभिः।
कर्णेषु च प्रवरकाञ्चनकुड्मलेषु नीलोत्पलानि विविधानि निवेशयन्ति ।।19।।
अति सघन घनों से कजरारे घुँघराले बालों को सँवार,
गुम्फित कर उनमें नवकुसुमित मालति-कुसुमों को बार-बार,
स्वर्णाभूषित निज कानों में शुभ नील पद्म का कर सिंगार,
कामिनियाँ हैं हो उठीं मुदित आया है जब से शरत्काल ।।19।।

हारैः सचन्दनरसैः स्तनमण्डलानि श्रोणीतटं सुविपुलं रसनाकलापैः।
पादाम्बुजानि कलनूपुरशेखरैश्च नार्यः प्रहृष्टमनसोSद्य विभूषयन्ति ।।20।।
उन्नत पयोधरों पर चन्दन चर्चित कर धारे दिव्यहार,
कटितट पर लटकाकर करधन बोझिल नितम्ब का लिये भार,
नूपुर समलंकृत चरणकमल रुनझुन-झंकृत-लयबद्ध-ताल,